२० दिसंबर, १९७२

 

 तुम्हें कुछ नहो पूछना?

 

मैंने अपने-आपसे श्रीअरविन्दके बारेमें एक प्रश्न पूछा । मैं यह जानना चाहता था कि जब श्रीअरविन्दने शरीर त्यागा तो बे रूपांतरके किस पहुंच चुके थे? उदाहरणके लिये, बे उस सरमद जो काम कर रहे थे उसमें, और आप अब जो काम कर रही हैं उसमें, क्या फर्क है?

 

उन्होने अपने शरीरमें अतिमानस-शक्तिकी बहुत-सी राशि इकट्ठी कर ली थी और जैसे ही उन्होंने शरीर छोड़ा.. । वे अपने बिस्तरपर लेटे हुए थे, मैं उनके पास खड़ी थी, एक बहुत ही मूर्त्त और ठोस रूपमें - इतने ठोस संवेदनके साथ कि ऐसा लगता था कि शायद वह दिखलायी दे -- वह सारी अतिमानसिक शक्ति जो उनके शरीरमें थी मेरे शरीरमें आ गयी । मुझे उसके मार्गकी रगड़का अनुभव हुआ । वह असाधारण चीज थी -- असाधारण । वह एक असाधारण अनुभूति थी । लंबे समयतक, लंबे समयतक यूं (माताजीके शरीरमें 'शक्ति'के प्रवेशकी मुद्रा) । मैं उनके बिस्तरके पास खड़ी थी और यह होता रहा ।

 

यह लगभग संवेदन था -- यह एक भौतिक संवेदन था ।

 

बस, बहुत देरतक ।

 

 मै यही जानती हू ।

 

लेकिन मै जो बात समझना चाहता हू वह यह है कि तब आंतरिक काम किसबिंदुतक पहुंचा था, उदाहरणके लिये, अवचेतना- की सफाई और यह सब कहांतक हुए थे? उस समय उन्होंने जितना काम किया था और अब आप जहांतक पहुंची हैं, इन दोनोंमें क्या फर्क है ? मेरा मतलब है : क्या अवचेतना अब कम अवचेतन है या...?

 

हां, हां, निश्चय ही । निश्चय ही ।

 

   लेकिन यह देखनेकी मानसिक पद्धति है - अब मेरे अंदर यह नहीं रही ।

 

   जी, माताजी ।

 

 (मौन)

 

   शायद इस 'शक्ति'की, इस 'ऊर्जा'की सामान्य या सामूहिक तीव्रतामें फर्क होगा, है न?

 

क्रियाकी शक्ति'में फर्क है । स्वयं उनमें, स्वयं उनमें जब वे सशरीर रो तबकी अपेक्षा अधिक क्रिया, अधिक क्रिया-शक्ति है । और फिर, इसीके लिये तो उन्होने शरीर छोड़ा था, क्योंकि इस तरह काम करनेके लिये यह जरूरी था ।

 

  यह बहुत ठोस है । उनकी क्रिया अब बहुत ठोस हों गयी है । सप्टा है कि यह एक ऐसी चीज है जो मानसिक नहीं है । वह और क्षेत्रका। है । लेकिन वह वायवीय भी नहीं है -- वह ठोस है । हम लगभग यहांतक कह सकते है कि वह भौतिक है ।

 

लेकिन यह जो दूसरा क्षेत्र है, मैंने बहुत बार अपने-आपसे पूछा है कि वहांतक पहुंचनेके लिये कौन-सी सच्ची गति करनी चाहिये? दो गतियां संभव हैं : अंदरकी ओर, अंतरात्माकी ओर गति ओर दूसरी, जिसमें व्यक्तित्वका निराकरण कर दिया जाता है, आदमी व्यक्तित्वके विना विस्तारमें होता है...

 

दोनों होनी चाहिये ।

 

    दोनों होनी चाहिये?

 

हां

 

 (माताजी अपने अंदर चली जाती है)

 

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